अब्राहम
लिंकन ने 19 नवंबर ,1863 को द गेटिसबर्ग
में अपने लोगों को संबोधित करते हुए कहा
था कि यह सरकार , जनता द्वारा , जनता के लिए, जनता की सरकार हैं। यह विश्व इतिहास में सबसे प्रसिद्ध
भाषणों में से एक हैं और शायद लोकतंत्र के किसी भी रूप के लिए सबसे महान और सबसे
प्रभावशाली बयानों में से एक हैं।
स्वतंत्रता
और लोकतंत्र को अक्सर विनिमेय माना जाता है लेकिन दोनों निश्चित रूप से समानार्थी
नहीं हैं। यह अनुमान लगाया जा सकता हैं कि लोकतंत्र स्वतंत्रता का संस्थानीकरण है
और संविधान लोकतंत्र का कवच हैं । जब किसी देश का संविधान अपने लोगो को सशक्त बनाने के लिए लोगो को अधिकार जैसे सूचना का अधिकार
, शिक्षा का अधिकार , रोजगार की गरांटी का अधिकार इत्यादि जैसे अधिकार देता है ,तो
लोकतंत्र की जड़े ओर ज्यादा मजबूत होती हैं। सरकार को पारदर्शी और न्यायवादी बने रहने के लिए लोगो के पास
ज्यादा से ज्यादा अधिकार होनी चाहिए।
महीला-सशक्तिकरण का ऐतिहासिक सफर
महीला-सशक्तिकरण आज के समय की मांग हैं। आधुनिकता के इस दौर में
हमें रूढ़ीवादी और समांतवादी मानसिकता से बाहर आने की जरुरत हैं। 18 वीं शताबदी में यूरोप की मैरी वुलस्टोनक्राफ्ट ने अपनी पुस्तक
वेंडिकेश्न ऑफ द ऱाईट्स ऑफ वूमेन (1792) में महिला अधिकारो की चर्चा की थी और
स्त्रीवाद का बीजारोपन किया था । नारीवाद
प्रमुख तौर पर समानता, स्वतंत्रता और सार्वभौमिक मताधिकार की मांगों पर
केंद्रित हैं। यह बहुत हद तक यूरोपीय उदारवाद के विचारों के अनुरूप था। इस किताब
में मैरी ने रुसो की उस बात का खंडन किया कि जो कहते है कि महिलाओ को उतना ही
शिक्षा देना चाहिए जितना कि वो पुरूषो को सेवा कर सके। पुस्तक में महिलाओ के लिए पुरूषो की तरह मौलिक
अधिकार देने , शिक्षा और राजनीति में महिलाओ की भागीदारी, साथ ही समाज के विभिन्न
क्षेत्र में महिलाओ की भागीदरी सुनिश्चत करने की बात कही गई हैं।
भारत में स्त्रीवाद का सफर
भारत में, औपनिवेशिक प्रभाव के तहत और उन्नीसवीं सदी के सुधार
आंदोलन के एक भाग के रूप में नारीवादी विचारों का प्रसार शुरू हुआ।
स्वतंत्रता-पूर्व अवधि के दौरान, नारीवादी
प्रश्न कुछ प्रमुख मुद्दों जैसे शिक्षा के प्रसार, बाल विवाह पर रोक, सती प्रथा का उन्मूलन, विधवा पुनर्विवाह आदि के इर्द-गिर्द घूमते हैं। हालाँकि, औपनिवेशिक भारत में महिलाओं के प्रश्नों का विश्लेषण
बहुत सीमित था। इसका दायरा और दृष्टिकोण केवल समाज के उच्च जाति हिंदू महिलाओं से
संबंधित था। दरअसल, इसमें
औपनिवेशिक आधुनिकता का अनुभव करने वाले औपनिवेशिक अभिजात वर्ग शामिल थे। इस प्रकार, औपनिवेशिक भारत में, सामाजिक सुधार आंदोलनों ने कुछ उच्च जाति के परिवारों
में लिंग संबंधों का आधुनिकीकरण किया, जबकि निचली
जाति की महिलाओं को उनके अधिकारों से वंचित करते हुए महिलाओं को जाति और
समुदाय-विशिष्ट प्रथाओं और समस्या को त्यागने वाले समूह के रूप में समरूप बनाने का
प्रयास किया।
दशको से चल रहे नारीवादी आंदोलन के बीच
नारीवाद की पहली लहर में विभिन्न देशो की सरकार ने महिलाओ को राजनीतिक अधिकार के
तौर पर वोट देने का अधिकार दिया। न्यूजलैंड ने सबसे पहले 1893 में महिलाओ को वोट
देने का अधिकार दिया। हाँलाकि , महिलाओ को राजनैतिक अधिकार मिल गया लेकिन राजनीति
में उनकी भागीदारी अभी तक सुनिश्चित नही
हो पाई हैं। अमेरिका जैसा विकसित देश मे राष्ट्रपति के पद पर आज तक कोई भी महिला
नही बैठ पाई हैं। भारत में मुखियापति का कसेंप्ट दिखाता है कि पितृसत्ता और
सामंतवादी विचारधारा की जड़े कितनी गहरी हैं । इतनी आधुनिकता के बावजूद हम उस
विचारधारा से बाहर नही निकल पाये हैं।
लोकतंत्र के मजबूती के लिए जरूरी है : स्त्रीवाद
लोकतंत्र को मजबूत करने के लिए राजनीति में
महिलाओ की भागीदारी अधिक से अधिक होनी चाहिए। महिलाओ को संवैधानिक अधिकारो के साथ –
साथ, वह स्पेश भी देना चाहिए, जिससे वो अपनी भागीदारी को सुनिश्चत कर सके। भारत
में लोकतंत्र सिर्फ राष्ट्रीय स्तर पर देखने को मिलता हैं। समाज और व्यक्तिगत स्तर
पर लोकतंत्र ना मात्र में देखा जा सकता हैं। इसकी प्रमुख वजह हैं - ब्राहम्णवाद , जातिवाद और सामंतवाद जैसी
व्यवस्था हैं। जो अपने स्टेट्स को हमेंशा बनाये रखना चाहती हैं। स्त्रीवाद इन
पितृसत्तात्मक व्यवस्था को तोड़ने की दावे
तो करती है लेकिन कहीं ना कहीं स्त्रीवाद भी स्टेट्स को बनाये रखने के लिए इन
विचारधाराओ का सहारा लेती हैं। नारीवाद की पहली लहर की एक मात्र उपल्बधी महिलाओ को वोट देने का अधिकार के रूप में देखा
जा सकता हैं।
नारीवाद की दूसरी लहर जिसकी शुरूआत करीब
1950 के दशक में हुई थी। जो यह जान चुकी थी कि वर्षों पहले, पितृसत्तात्मक
समाज से बनी सामाजिक संरचना को तोड़ने के
लिए वोट का अधिकार मात्र काफी नही हैं। मूलभूत सामाजिक संरचनाओ में बदलाव करने की
आवश्यकता हैं। बिट्टी फ्रेडन की पुस्तक द फेमिनिन मिस्टिक (1963) महिलाओ की समाजिक स्थिति में बदलाव की वकालत
करता हैं। महिलाओ को शिक्षा के साथ-साथ , सार्वजनिक क्षेत्र में काम करने के
अधिकार इत्यादि की चर्चा की गई हैं। केट मिलेट की
किताब सेक्सुअल पोलिटिक्श और जर्रमैन ग्रेर की किताब द फिमेल ऑन्च (1970), समाज
में महिलाओ पर हो रहे उत्पीड़नो की आलोचना करता है। महिलाओ के उसके शिक्षा और
सार्वजनिक क्षेत्र में कार्य के अलावा महिलाओ की व्यक्तिगत और मानसिक समस्या को
लेकर समाज की भर्तसना की गई हैं। मिलेट और ग्रेर ने तर्क दिया कि कानूनी बदलाव और
विधायी परिवर्तन से महिलाओ की स्थिति में नही की जा सकती हैं , इसके लिए हमें
समस्या के जड़ तक पहूँच कर पितृसत्ता , समांतवादी और ब्रहामणवादी इत्यादि रवैया को
बदलने की जरूरत हैं।
कुछ विश्लेषक स्त्रीवाद की तिसरी लहर का उदय
का आंकलन इस बात से करते है कि महिलाएं हाई हिल्स , छोटे कपड़े , कोस्मेटिक जैसे
अपने पसंद की लिपस्टिक लगाने को ही महिलासशक्तिकरण मानते हैं ,जबकि इसके अलावे
बहुत सारी संरचनात्मक समस्याएं अब भी समाज में मौजूद हैं , जिससे जड़ से खत्म करने
की आवश्यकता हैं। स्त्रीवाद की तिसरी लहर, महिलाओ को समाज में समाजिक-आर्थिक
संरचना मे हिस्सेदारी देने पर जोर देता हैं। सार्वजनिक ,गैर – सार्वजनिक कार्यलयों
में महिलाओ की भागीदारी सुनिश्ति करने की
बात करता हैं।
नारीवादी पितृसत्ता की आलोचना करते है और
तर्क देते हैं कि समाज में समाजिक संरचना, राजनैतिक संरचना ,आर्थिक संरचना पितृसत्ता
की देन है ,जिसके कारण महिलाओ को समाज मे दबाया जा रहा हैं। दूनिया के सभी बड़े
देशो में पितृसत्तमक समाजिक व्यवस्था देखा जा सकता है। जिसके कारण आज भी महिलाए
दबी हूई है और उस पर अत्याचार हो रहे हैं। केट मिलेट तर्क देते हैं कि पितृसमाज
समाज वंशानुगत परंपरा के तौर पर चली आ रही हैं। महिलाओ पर पुरूष का दबदबा है, उस
पुरूष पर बुर्जुग पुरूष का दबदबा हैं , इस प्रकार से समाज मे यह व्यवस्था वर्चस्व
को बनाये रखती हैं।
नारीवाद की पहली लहर में महिलाओ को कानूनी
और संवैधानिक समानता दिया गया है ,जो लोकतंत्र की जड़ो को मजबूत करता हैं लेकिन अभी
भी स्पष्ट तौर पर नही कहा जा सकता हैं कि यह दूनिया महिलाओ के लिए खुबसूरत हैं।
नारीवाद में जातिवाद की झलक
नारीवाद पितृसत्तामक विचारों से प्रेरित सारी
विचारधारा को ध्वसत करता है लेकिन जातिवाद जैसे समाजिक संरचना को तोड़ने में असफल
रहा हैं। उच्च जाति की महिला अपने ही महिला वर्ग के निचली जाति के महिला से घृणा
करती हैं, जबकि नारीवाद समाज में समानता की वकालत करता हैं। नारीवादीयों को सिर्फ
पुरुषो से समानता चाहिए । इनके महिला वर्ग में असमानता स्पष्ट तौर पर देखी जा सकती
हैं। दहेज लेने -देने के दौरान पुरूषो की
अपेक्षा महिलाए महिलाओ का ज्यादा शोषण करते पाई गई हैं। दहेज के लिए सास-बहु में
झगड़े की खबरे अखबारो में आम बात हो गई है। सदियों से महिलाओ के साथ वस्तु जैसा व्यवहार किया जाता हैं। आज भी समाज महिलाओ
को कही न कही इस नजर से देखता है । रेडिकल फेमिनिज्म तर्क देता है कि महिलाओ पर हो
रहे अत्याचार का मुख्य कारण लेगिंक असमनता है, इसके लिए वो मर्द को दोषी ठहराते
हैं। फेमिनिज्म एक ओर समाज मे समानता और न्याय की वकालत करता है तो वहीं दूसरी ओर
महिलाओ के बीच असमानता देखी जाती हैं। न्यायवादी नजरिए से देखे तो खुद इनमें मतभेद
देखा जा सकता हैं। हाँलाकि सकारात्मक कार्रवाई से इन समस्याओं को दूर करने का
प्रयाश किया जा रहा हैं। कामकाजी महिलाओ के पक्ष मे सरकार मातृत्व अवकाश (
मैटरनिटी लीव ) और पीरियड लीव जैसी
छुट्टीयां देकर समाज को न्यायसंगत बनाने का प्रयाश कर रही हैं। जिससे समाज मे
असमानता कम होगा।