भारत जनजाति और जातियों की भूमि है। जनजातियाँ पूरे देश में विभिन्न भौगोलिक क्षेत्रों में फैली हुई हैं। उनमें न केवल सांस्कृतिक विविधता है बल्कि आर्थिक विविधता भी है[i] । आदिवीसी अर्थव्यवस्था वन पारिस्थितिकी तंत्र के इर्दे- गिर्दे घुमता हैं। आदिवासी अर्थव्यवस्था का क्षेत्र व्यापक है। यह आर्थिक पहलुओ के साथ-साथ गैर आर्थिक पहलुओ को भी शामिल करता हैं। यह सिर्फ आदिवासी अर्थव्यवस्था की बात नही करता हैं, ब्लकि इसके साथ गैर आर्थिक पहलु जैसे आदिवासी संस्कृति, दर्शन , विचारधार, इतिहास और शासन प्रणाली की भी बात करता हैं। आदिवासियों की आर्थिक संरचनाएं गैर आदिवासी से भिन्न होती हैं। पारंपरिक आदिवासी अर्थव्यवस्था प्राथमिक उत्पादित संसाधन जैसे वन संसाधन , पशु ,अनाजों और सब्जियों की फसल पर आधारित होती हैं। आदिवासी अपनी आजीविका चलाने के लिए बड़े पैमाने में प्राकृतिक संसाधन पर निर्भर रहती हैं। ये अपनी मूलभूत जरुरत को पूरा करने के लिए वन पर निर्भर रहते हैं। वन संसाधन का उपयोग घरेलू जरुरतो को पूरा करने के लिए किया जाता हैं। ये वाणिज्य परियोजन के लिए वनो का उपयोग नही करते हैं।
आदिवासी अर्थव्यवस्था की खासियत -
आदिवासी अर्थव्यवस्था की विचारधार पूंजीवादी
अर्थव्यवस्था के विचारधारा के विपरित्त हैं। जहाँ पूंजीवादी अर्थव्यवस्था टपकन के सिद्धांत ( ट्रिकल डाउन थ्योरी ) और
अपनी संपत्ति को बढ़ाना मात्र उद्देश्य होता है, वही आदिवासी अर्थव्यवस्था प्रकृति
संसाधन को कम से कम नुकसान करते हुए व्यक्ति और समाज के जरूरतों को पूरी करता हैं।
आदिवासी अर्थव्यवस्था व्यक्ति के साथ- साथ प्रकृति में सामंजस्य बनाये रखने की
वकालत करता हैं। आदिवासी अर्थव्यवस्था अपनी आर्थिक विकास के आकंलन में आर्थिक
पहलुओं के साथ-साथ गैर आर्थिक पहलुओं को भी शामिल करता हैं। आदिवासी अर्थव्यवस्था
में आर्थिक पहलुओं की अपनी अलग खासियत हैं जैसे-
आत्मनिर्भर अर्थव्यवस्था
आर्थिक
मानवविज्ञानी डॉल्टन के अनुसार आदिवासी अर्थव्यवस्था में भौतिक वस्तुओं और सेवाओं के अधिग्रहण और उत्पादन के लिए एक संरचनात्मक व्यवस्था और नियम लागू
है[ii]। वस्तू और सेवाओं के अधिग्रहण और उत्पादन की प्रक्रिया में, मानव श्रम का विभाजन, प्राकृतिक संसाधनों का उपयोग और प्रौद्योगिकी के
अनुप्रयोग शामिल हैं। आदिवासी अर्थव्यवस्था आत्मनिर्भर अर्थव्यवस्था हैं, यहाँ पर किसी
तरह का आर्थिक मुकाबला नहीं हैं।
मुद्रा विनियमन की नगण्यता
आधुनिक पुँजीवादी अर्थव्यवस्था का लक्ष्य आर्थिक लेन- देन की प्रकिया में ज्यादा से ज्यादा मुनाफा कमाना होता हैं। लेकिन आदिवासीयों में आर्थिक गतिविधियों के दौरान मुनाफा ना के बराबर देखा जाता हैं , क्योंकि आदिवासीयों की जीवन-शैली आवश्यकता अधारित होती हैं। पारंपरिक आदिवासी अर्थव्यवस्था में आर्थिक गतिविधियाँ और सेवाएं वस्तु-विनिमय प्रणाली ( barter system ) के द्वारा होती थी और आज भी यह व्यवस्था आदिवासी समाज में देखने को मिलता हैं।
काम का विभाजन
आदिवासी अर्थव्यवस्था में काम का विभाजन
व्यक्ति के श्रम शक्ति, उम्र और लिंग के आधार पर होता हैं[iii]।
महिलाएं शारीरिक से कमजोर होती है,इसलिए उन्हें अधिकांश घरेलु काम जैसे बांस से
टोकरी बनाना, चटाई बनाना इत्यादि काम करती हैं। इस तरह से लड़के और लड़कियों को
उनके योग्यता के आधार पर काम का बंटवारा होता हैं। आदिवासी समाज में मानव श्रम का
विभाजन परिवार में उपस्थित सदस्य के लिंग और आयु पर निर्भर करता हैं। महिलाओ और
बच्चों को उनके श्रमशक्ति के अनुरूप कार्य दिया जाता हैं।
गिफ्ट का लेन-देन
आदिवासियों मे गिफ्ट का लेन-देन की
प्रक्रिया काफी प्रचलित हैं। लोग अपने योग्यता के आधार पर शादी जैसे समारोह में
गिफ्ट देते हैं। यह प्रक्रिया आदिवासियों में सदियों से चली आ रही हैं,जो आदिवासी
संस्कृति का हिस्सा बन चुकी हैं।
सप्ताहिक बाजार
बाजार दूनिया का सबसे बड़ा आर्थिक संस्था है, जहाँ लोग एक दूसरे के साथ अपनी जरूरत की वस्तुओ और सेवाओ का आदान- प्रदान करते हैं। शहरों में बाजार स्थायी रुप में हैं लेकिन ग्रामीण आदिवासी क्षेत्रों में किसी भी तरह का स्थायी बाजार देखने को नही मिलता हैं। इन क्षेत्रों में सप्ताहिक बाजार लगते हैं, जहाँ अधिकांश आर्थिक गतिविधियाँ वस्तु-विनिमय प्रणाली से होती है। इस सप्ताहिक बाजार को विभिन्न क्षेत्रो में कई स्थानीय नामों से जाना जाता हैं जैसे- बाजार, हाट ,पिथई इत्यादि। बाजार में अलग- अलग आदिवासी और गैर- आदिवासी समुदाय के लोग आते है और व्यपार करते हैं। इन दिनों सप्ताहिक बाजार में दोनों वस्तु-विनिमय प्रणाली और पैसों से लेन-देन की प्रक्रिया को साथ में देखा जा सकता हैं। सप्ताहिक बाजार सामाजिक-संस्कृतिक और आर्थिक रुप में आदिवासीयों पर गहरा प्रभाव डालता हैं। इस बाजार के माध्यम से वे राष्ट्रीय और वैश्विक अर्थव्यवस्था के साथ आदिवासी अर्थव्यवस्था के एकीकरण के अलावा दूसरे आदिवासी समुदाय और गैर आदिवासी लोगों के बीच सांस्कृतिक संपर्क कर रहे होते हैं। लेन-देन की प्रक्रिया में सबसे खास बात यह हैं कि आदिवासी अपनी पोषणयुक्त कृषि उपज जैसे सब्जियाँ, दाले, मुर्गे, अण्डे, बकरे इत्यादि को बेचते हैं और बदले में जरुरत की चीजें जैसे कपड़े , खाने के तेल ,किरोसिन इत्यादि को लेते हैं।
आदिवासी अर्थव्यवस्था भारत के विभिन्न
क्षेत्रों में प्रचलित हिंदुओं के जजमानी व्यवस्था ( jajmani system) में काफी समानताएँ पाई जाती हैं। जजमानी व्यवस्था हिंदुओं की
जाति आधारित आर्थिक व्यवस्था हैं। मुद्रीकरण के कारण आदिवासी अर्थव्यवस्था में काफी
बदलाव आया हैं। आदिवासी आर्थिक रूप से कमजोर होने के कारण बाजार से उन वस्तुओ और
सेवाओ का लाभ नही ले पाते हैं जिनकी उन्हे सख्त जरूरत हैं। इन्ही कारणों से समाज
में कई बार आदिवासीयों का शोषण होता हैं।
आदिवासी अर्थव्यवस्था की गैर- आर्थिक पहलू -
आदिवासी अर्थव्यवस्था का आर्थिक पहलू समाज
में मुख्य रुप से व्यक्ति के श्रम- शक्ति, कार्य का विभाजन ,वस्तुओं एवं सेवाओं
इत्यादि को शामिल करता हैं वहीं दूसरी और गैर- आर्थिक पहलू आदिवासी समाज की
संस्कृति, विचारधार, दर्शन ,शासन प्रणाली इत्यादि को अपनी अर्थव्यवस्था में शामिल
करता हैं। आदिवासीयों की सामाजिक संरचना गैर-आदिवासीयों से भिन्न होती हैं। आदिवासी सामाजिक संगठन आमतौर पर कुलदेवता पर आधारित होता
है। विभिन्न आदिवासी समूह विशिष्ट चेतन या निर्जीव वस्तुओं की प्राकृतिक घटना की
कुछ प्रजातियों के साथ पौराणिक आत्मीयता का दावा करते हैं और वे इन चेतन या
निर्जीव वस्तुओं को अपना पूर्वज मानते हैं। इस तरह की विश्वास प्रणाली और इससे
जुड़ी प्रथाओं को टोटेमिज्म के रूप में जाना जाता है[iv]।
इन टोटेमिक वस्तुओं को पवित्र माना जाता है और इनका मांस खाना या मारना वर्जित
होता है। यदि उनके कुलदेवता पशु की मृत्यु हो जाती है, तो संबंधित कबीले के सदस्य सभी प्रकार के अनुष्ठानों और
समारोहों का पालन करते हैं और इसे अपने मृत परिजनों और रिश्तेदारों की तरह दफनाते
हैं। विशाखापत्तनम जिले के सभी 15 आदिवासी समूह , आदिलाबाद जिले के गोदावरी
घाटियों पर बसे आदिवासी, झारखंड ,बिहार ,उड़ीसा, बंगाल मे बसे संथाल आदिवासी भी इस
तरह के प्रथा का अनुसरण करते हैं। इस तरह से वे पेड़-पौधों ,जीव-जन्तुओं की रक्षा
करते है जिससे वन संसाधनों के बीच संतुलन बना रहता हैं। आदिवासीयों का जंगलों में
शिकार करने को लेकर खास मान्यता हैं। ये जीव-जंतुओं के प्रजन्न काल के दौरान शिकार
नही करते हैं। किसी खास अवधि में ही शिकार किया जाता हैं, जिससे प्रकृति में
संतुलन बना रहता हैं। वनो को बचाने का यह सबसे अच्छा तकनीक है।
आदिवासी शासन प्रणाली में अर्थव्यवस्था की भूमिका -
जहाँ तक शासन प्रणाली की बात हैं आदिवासी राजा या मुखिया, गाँवों या कबिलों को चलाने के लिए किसी भी प्रकार का कर की वसुली जनता से नहीं करता है। झारखंड में बसे मुंडा और संथाल आदिवासीयों की शासन प्रणाली इसका उदाहरण हैं। इस प्रकार की शासन व्यवस्था को चलाने के लिए समाज में सबकी समान भागीदारी की जरूरत होती हैं। यह समान भागीदारी आज भी आदिवासी समाज के लोगो में पाया जाता हैं। हालांकि इस प्रकार की शासन व्यवस्था बहुत छोटे स्तर और कम क्षेत्र में हैं लेकिन मुद्रीकृत आर्थिक व्यवस्था के बीच आज भी यह आदिवासी समाज में हैं। आदिवासी समाज व्यक्ति के साथ-साथ प्रकृति से जुड़े पेड़-पौधों, जीव-जन्तुओं कि न्याय की बात करता हैं। संथाल आदिवासी जब शिकार करने के लिए जाते हैं, उस दौरान उनके साथ कुत्ता भी शिकार में शामिल होता हैं। शिकार के दौरान जब कोई चीज हाथ लगती हैं तो उसका बँटवारा किया जाता हैं, बँटवारे का एक हिस्सा शिकार में शामिल उस कुत्ते को भी दिया जाता हैं। आदिवासी समाज पर्यावरण केंद्रीत लोकतांत्रिक समाज की वकालत करता हैं। जिस वजह से यह अन्य समाज से भिन्न हैं।
झारखंड की असुर जनजाति (असुर जनजाति खुद को
महिषासुर का वंशज मानती हैं) दूनिया में इसलिए पहचानी जाती हैं क्योंकि इनके
पूर्वज जमीन से लौह अयस्क निकालकर हथियार बनाती थी जिससें पूरे विश्व के लोग इनसें
हथियार खरीदने के लिए आते थे। बिना किसी आधुनिक उपकरण की मदद से पर्यावरण को क्षति
पहूचाएं बिना जमीन से लौह अयस्क निकालकर हथियार बनाने की अदभूत कला किसी दूसरे
जाति के लोगों में नहीं हैं। आज भी असुर जनजाति इस पेशा से जुड़े हुए है और अपना
जीवन-यापन कर रहे हैं।
आदिवासी अर्थव्यवस्था के मानको का अनुसरण करती खुशहाली सूचकांक की रिपोर्ट -
आदिवासी अर्थव्यवस्था में भुटान देश के सकल
राष्ट्रीय खुशहाली सूचकांक को मापे जाने
वाले कारक जैसे समाज में सतत और न्यायसंगत
सामाजिक-आर्थिक विकास, पर्यावरण संरक्षण, संस्कृति का संरक्षण और संवर्धन, और
सुशासन जैसी व्यवस्था पाई जाती हैं[v]।
वैश्विक खुशहाली रिपोर्ट जिन छ: कारकों (1. प्रति व्यक्ति सकल घरेलू उत्पाद (क्रय शक्ति
समानता),2. सामाजिक सहयोग,3.जन्म के समय स्वस्थ जीवन प्रत्याश, 4. जीवन में विकल्प
चुनने की स्वतंत्रता ,5. उदारता, 6. भ्रष्टाचार की धारण) के कारण नागरिकों के
खुशहाली के स्तर को मापता हैं, उनमें से अधिकांश की वकालत आदिवासी समाज सदियों से
करता आया हैं।
[i]
Stuart corbridge, ‘The Ideology of Tribal
Economy and Society: Politics in the Jharkhand, 1950–1980’, Modern Asian
Studies, 22.1 (1988), 1–42
<https://doi.org/10.1017/S0026749X00009392>.
[ii]
G S Aurora, ‘Economy of a Tribal Village’,
1964, 4.
[iii]
Aurora.
[iv]
M Gopinath Reddy and K Anil Kumar, ‘Political
Economy of Tribal Development: A Case Study of Andhra Pradesh’, 54.
[v]
‘Gross_National_Happiness.Pdf’.