संथाल आदिवासियों का पवित्र पर्व है- सोहराय

सोहराय संथाल आदिवासियों का सबसे बड़ा पर्व हैं। पारम्परिक रूप से ये सम्पन्नता को समर्पित पर्व है, जिसमें समृद्धि लाने के लिए कुल देवता तथा खेतिहर मवेशियों की आराधना की जाती है । यह पर्व उत्तरी बंगाल, झारखंड, असम और भारत के सीमार्वती देश जैसे बंग्लादेश, नेपाल, म्यामांर में पौष महीनें में मनाया जाता हैं और दक्षिण बंगाल , उड़ीसा और छत्तीसगढ़ के इलाको में बसे संथाल आदिवासी कार्तिक महीनें में दिवापली के वक्त मनाते हैं। यह पर्व मनुष्यों के प्रकृति और घरेलू पशुओं के बीच आपसी प्रेम और श्रद्धा को दर्शाता है। संथाल आदिवासियों का सोहराय पर्व और दक्षिण भारत के तमिलनाडू मे मनाया जाने वाला पोंगल पर्व में काफी समानता पाई जाती हैं।

क्यों पौष महीने में मनाया जाता है - सोहराय

वैसे तो सोहराय कार्तिक महीने में मनाया जाने वाला पर्व हैं। लेकिन 1855 की संथाल हूल  के कारण सोहराय पर्व को कुछ जगहों पर पौष महीने में मनाया जाने लगा । जिसकी पूष्टी एक लोकगीत से होती हैं ( लोकगीत का लिंक - https://www.youtube.com/watch?v=uITjQRKioMM )। यह गीत उस दौर में गायी गई थी , जब ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी ने दामिन क्षेत्र ( झारखंड के संथाल परगणा क्षेत्र)  में 3 जनवरी, 1856 को मार्शल लॉ को निलंबित कर दिया था। जिसके बाद दामिन क्षेत्र  में बसे संथाल आदिवासी लंबे ब्रेक के बाद सोहराय मनाने को उत्सुक तो थे लेकिन  लोग मार्शल लॉ के डर से बाहर आने के लिए अनिच्छुक थे। जिसके बाद से इस क्षेत्र में पौष माह में सोहराय पर्व मनाया जाने लगा। इस गीत में लोगों को घर से बाहर निकलने के लिए आग्रह किया जा रहा है और सड़को पर नाचने-गाने के लिए बोला जा रहा है। लोगों को गाने के माध्यम से बताया जा रहा कि ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी ने मॉर्शल लॉ को निलंबित कर दिया है , अब वो अपने पर्व को मना सकते हैं। उन्हें कोई नहीं रोकेगा । यह गीत पर्व को फिर से नये सिरे से मानने की खुशी को बताता है और हूल के दौरान लोंगो की मौत के दर्द को भी ब्यां करता हैं। ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी नें संथाल हूल को रोकने के लिए मार्शल लॉ लगाया गया था। संथाल हूल ब्रिटिश हूकुमत और जमींदारी व्यवस्था के खिलाफ संथाल आदिवासी द्वारा किया गया विद्रोह था। विद्रोह को रोकने के लिए ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी ने इस क्षेत्र में मार्शल लॉ लगाया था । जिसके कारण इस क्षेत्र में सभी त्योहारों और उत्सवों को रोक दिया गया था। हूल की लड़ाई में अपने हजारों लोगों की मौत के कारण स्वयं संथाल भी उत्सव के लिए तैयार नहीं थे। अशांति के दौरान कई लोगों ने अपना सामान और पशुधन भी खो दिया था । इसके अलावा बारिश की कमी और खराब फसलों के कारण क्षेत्र में भोजन की कमी थी। ऐसा माना जाता है कि हूल शुरू होने से पहले समारोह और त्योहारों को स्थगित कर दिया गया था।

                                                                                  घर के दिवार पर बनाया गया पेंटिंग

यह पर्व मुख्य रुप से कृषि तथा अन्य कार्य में पशुओं के श्रम का श्रेय तथा आभार देने के लिए मनाया जाता हैं। लोग सोहराय पर्व की तैयारी जैसे घरों की साफ-सफाई करना, बलि के लिए पशु -पक्षियों की व्यवस्था करना, पूजा करने के लिए देशी शराब हड़िया (राईस बियर) इत्यादि की शुरूआत कुछ दिन पहले से करने लगते हैं। पांच दिनों तक चलने वाले सोहराय पर्व में कुल देवताओं के साथ-साथ पशुधन जैसे गाय, बैल, भैंस इत्यादि कि पूजा की जाती हैं। इस पर्व में हर उम्र के स्त्री, पुरुष, बच्चे, युवा सभी पूरे हर्षोल्लास के साथ खाते-पीते हैं और ढोल-मांदर की थाप पर नाचते गाते हैं । पांच दिनों के इस पर्व में हर दिन की अलग-अलग विशेषताएं हैं ।

पहला दिन - ऊम माहा

पहले दिन को ऊम माहा कहा जाता हैं। इसका मतलब स्नान का दिन होता हैं। इस दिन लोग नहा- धोकर गांव के गोठ टंडी (गोठ टंडी - गाँव के पशुओ को चराने की खास भूमि) में एकत्रित होते हैं। गांव के आमलोगों के साथ-साथ गांव के मांझी (गाँव का मुखिया), परगनैत, नाईकी (पुजारी) भी मौजूद रहते हैं, जहाँ नाईकी  मुर्गा की बलि देते हैं। गोठ टंडी में ही मुर्गा और चावल की खिचड़ी बनाकर खाते हैं। खाने पीने के बाद सभी ढोल-मांदर की थाप पर नाचते-गाते हुए अपने घरों की ओर जाते हैं। इस तरह से गोठ टंड़ी से सोहराय पर्व का आरंभ होता हैं।

गोठ टंड़ी में किया गया पूजा
दूसरा दिन – दाका या बोंगा माहा (भोजन या पूजा का दिन)

वैसे तो सोहराय पर्व का हर दिन महत्वपूर्ण है लेकिन दूसरा और तीसरा दिन का सबसे ज्यादा महत्व हैं। इस दिन बहुत सी महत्वपूर्ण पूजा होती हैं। लोग कृषि उपकरण की सफाई कर उसकी पूजा करते हैं। घरों में कुल देवताओ की पूजा की जाती हैं। साथ ही, पशुओ को रखने की जगह को भी पूजा किया जाता हैं। जिसे गोड़ा पूजा कहा जाता हैं। इस दिन विभिन्न प्रकार के पकवाने भी बनाई जाती हैं। इसलिए इसे दाका माहा भोजन का दिन भी कहा जाता हैं।

तीसरा दिन – खूँटाव माहा

इस दिन को खूँटाव माहा कहा जाता हैं।यह दिन मवेशियों की पूजा और सम्मान का होता है। आदिवासी समुदाय के लोगों का मानना है कि हमारी जो खेती हो रही है, उसमें हमारे घर के मवेशी का काफी सहयोग रहता है, इस दिन गाय-बैल को सजाया जाता है, कहीं-कहीं मवेशियों के सींगों पर धान की बाली बांधी जाती है और घर के बाहर मवेशियों को खूटे से बाँधकर उसके सामने नाचते गाते हैं।

बैल के सामने नाचते हुए लोग
चौथा दिन – जाले माहा

जाले माहा सोहराय पर्व का चौथा दिन होता हैं। यह पूरा दिन नाचने-गाने ,खाने- पीने में व्यतीत हो जाता हैं। महिलाएं क्रमबद्ध कतार में पारंपरिक गाने के साथ एक दूसरे का हाथ मे हाथ पकड़ कर नाचती हैं जिसे चैन डांस कहा जाता हैं,वहीं पुरूष इस नृत्य में मांदर और नगाड़ा बजाकर सहयोग देते हैं ।

क्रमबद्ध कतार मे नाचती महिलाएं
पांचवा दिन – सकरात माहा

सकरात को सेंदरा माहा भी कहा जाता हैं। जिसका मतलब शिकार का दिन होता हैं। यह सोहराय पर्व का आखरी दिन होता हैं। सोहराय पर्व का पहला चार दिन (ऊम माहा, बोंगा माहा,खूँटाव माहा ,जाले माहा) लगातार मनाया जाता हैं। पांचवा दिन -सकरात माहा को मकर संक्राति के दिन मनाया जाता है। इस दिन लोग नहा- धोकर अपने कुत्ते के साथ शिकार करने के लिए जंगल जाते हैं। शिकार के दौरान जो कुछ भी हाथ लगता हैं। उसका बँटवारा किया जाता हैं । बँटवारे का एक हिस्सा उस कुत्ते को भी दिया जाता हैं, जो शिकार के दौरान साथ में था। आदिवासी समाज सदियों से जीव- जंतुओं के अधिकार की वकालत करता आया हैं, जिसकी झलक आदिवासी संस्कृति में देखी जाती हैं। इन्हीं खुबियों के कारण आदिवासी अन्य समाज से भिन्न हैं। इस दिन तीरंदाजी प्रतियोगिता भी होती हैं, विजेता को कंधे पर बैठाकर पुरा गाँव घुमाया जाता हैं। इस तरह से सोहराय का समापन होता हैं।