बांझी गोली कांड - समाज के असंतुष्ट वर्गों का एक दुखद अध्याय

 

  बांझी गोली कांड में शहीदो के नाम पर लगाए गए पेड़
भारतीय इतिहास के लेख में, कुछ घटनाएं ऐसी होती हैं, जो समाज के असंतुष्ट वर्गों की लड़ाई के साक्षात्कार होती हैं, जिसमें सत्ताधारी ताकतों का सामना किया जाता है। ये घटनाएं असमान समुदायों के संघर्षों का एक स्मरण बनती हैं और अक्सर प्राधिकृतियों के हाथों एक ऐसा दुखद अध्याय लिखा जाता है, जो इतिहास के पन्नों में जुड़ जाता है।

बांझी गोली कांड, जो आज भी बांझी गांव में निवास करने वाले जनजाति के लोगों की यादों में अंकित है, उन्हीं दुखद घटनाओं में से एक है।

बांझी मसाकरे, जिसे बांझी गोली कांड भी कहा जाता है, न्यायिक अत्याचार, शोषण, और भूमि हथियाने के खिलाफ उठी एक विद्रोह के रूप में हुआ था, जिसका सामना भारत की आदिवासी जनजातियों ने किया। यह घटना 19 अप्रैल, 1985 को हुई, जब पुलिस ने एक समूह आदिवासी प्रदर्शनकारियों पर गोलियां चलाईं, जिसमें पूर्व सांसद फादर एंथोनी मुर्मू सहित 15 लोगों की मौत हो गई।

बांझी गोली कांड आदिवासियों की भूख, गरीबी, और शोषण के खिलाफ लड़ाई को दर्शाता था। 19 अप्रैल 1985 को पुलिस ने 15 आदिवासियों सहित पूर्व सांसद फादर एंथोनी मुर्मू को गोलियों से मार दिया। इस हिंसक संघर्ष में, लगभग आधे घंटे तक पुलिस ने 80 राउंड गोलियां चलाईं।

इस पुलिस फायरिंग ने लोकसभा का ध्यान आकर्षित किया, और प्रधानमंत्री ने राम दुलारी सिन्हा नामक अधिकारी को मामले की जांच का दायित्व सौंपा। गोली कांड के संदर्भ में पुलिस ने दावा किया कि आदिवासी भीड़ ने पहले तीर-धनुष से उन पर हमला किया, और बाद में जवाबी कार्यवाही करते हुए पुलिस ने 80 राउंड फायरिंग की।

संताल परगना क्षेत्र आदिवासी बहुल इलाका है। जनसंख्या की दृष्टि से यहां मुख्य रूप से संताल आदिवासी और सदान (गैर आदिवासी मुलवासी) निवास करते हैं। पड़ोसी राज्य बिहार से सटे होने के कारण यहां जातीय संघर्ष और सामंतवाद का प्रभाव गैर-आदिवासी वर्गों में देखा जाता है।

1980 के दशक में बांझी में चार प्रमुख लकड़ी के व्यवसायी थे: मोती भगत, मदन भगत, कैय्यूम मियां, और बद्री भगत। इन सभी को सरकार से लकड़ी की खरीद-फरोख्त का लाइसेंस प्राप्त था। ये लोग आदिवासियों से कम दामों पर लकड़ी खरीदते और उसे ऊंचे दामों पर बेचते थे। इस व्यापारिक गतिविधि से वन रक्षक एरिक हॉसदा समेत आदिवासियों में असंतोष बढ़ता जा रहा था।

इसी दौरान, बांझी बाजार के तालाब की बंदोबस्ती मोती भगत के नाम कर दी गई, जो एक दबंग व्यक्ति था। आदिवासी इस तालाब में पहले से मछली पकड़ते आ रहे थे, लेकिन तालाब का ठेका मिलने के बाद मोती ने उन्हें मछली पकड़ने के लिए केवल एक छोटा हिस्सा दिया। फिर एक दिन इस तालाब से मटरू मुर्मू की क्षत-विक्षत लाश बरामद हुई, जिससे आदिवासियों में जबरदस्त आक्रोश फैल गया।

इस आक्रोश के चलते, 25 मार्च 1985 को आदिवासियों ने मोती भगत के घर और गोदाम पर हमला कर दिया। हालात की गंभीरता को देखते हुए पुलिस ने मोती भगत के खिलाफ भारतीय दंड संहिता की धारा 302 के तहत हत्या का मुकदमा दर्ज किया, लेकिन गिरफ्तारी से पहले ही मोती भगत रहस्यमय तरीके से फरार हो गया।

25-26 मार्च 1985 को, उपायुक्त बाघम्बर प्रसाद और अनुमंडलाधिकारी ने बांझी गांव का दौरा किया। प्रशासन ने गांव में सशस्त्र बल तैनात कर दिए थे। इसके विरोध में आस-पास के गांवों जैसे अप्रोल, सवय्या, पहाड़पुर, बीरबलकान्दर, और देवपहाड़ से बड़ी संख्या में आदिवासी ढोल-नगाड़े, तीर-धनुष और पारंपरिक हथियारों के साथ इकट्ठा होने लगे। पंचायत भवन में सरकारी अधिकारी कैंप कर रहे थे, जहां पूर्व सांसद फादर एंथोनी मुर्मू, मदन मुर्मू, जेठा मुर्मू और प्रशासनिक अधिकारियों के बीच बातचीत शुरू हुई।

इसी बीच, उग्र भीड़ ने श्यामल डे, लाल साह और पोस्ट ऑफिस को आग के हवाले कर दिया। हालात बिगड़ते देख, उस समय तैनात एसडीओ ने फायरिंग का आदेश दे दिया, जिसमें पूर्व सांसद सहित 15 लोग शहीद हो गए।बाद में, शहीदों के शव को पोस्टमार्टम के लिए प्रशासन द्वारा कब्जे में ले लिया गया। पोस्टमार्टम के बाद शव को परिजनों को नहीं दिया गया। लोगों का कहना था कि तत्कालीन अधिकारी इस घटना को दबाने की कोशिश कर रहे थे और निष्पक्षता से कार्रवाई नहीं की गई। प्रशासन ने शव को परिजनों को सौंपने के बजाय गंगा में फेंक दिया।
पूर्व सांसद फादर एंथोनी मुर्मू सहित 15 शहीदों की याद में, बांझी गांव के लोग और आसपास के गांव वालों ने उन शहीदों के नाम पर पेड़ लगाए हैं। हर साल 19 अप्रैल को बांझी गांव और अन्य लोग उन पेड़ों पर शहीदों के नाम पर श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं। एक छोटे से कार्यक्रम के माध्यम से लोगों को उनके हक और अधिकारों के प्रति जागरूक किया जाता है।


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