जब पूरी दुनिया जलवायु परिवर्तन की चुनौतियों से निपटने के लिए वैश्विक सम्मेलनों, नीतियों और वैज्ञानिक बहसों में उलझी है। तब इन कूटनीति और विज्ञान के मंचों से दूर, भारत के पूर्वी हिस्से झारखंड, बिहार, ओडिसा ,बंगाल और आसपास के क्षेत्रों में एक प्राचीन आदिवासी त्योहार—करम पर्व— जलवायु संकट से जूझने के लिए अपना नैतिक और सांस्कृतिक ढाँचा प्रस्तुत करता है। हर साल भादो महीने की एकादशी को मनाया जाने वाला यह पर्व पूजा, सामुदायिक मिलन और पारिस्थितिक नैतिकता की शिक्षा—तीनों का संगम है। पहली नज़र में यह पर्व केवल सांस्कृतिक या लोक-परंपरागत लगता है। गाँव के लोग गीत गाते हैं, नृत्य करते हैं और करम वृक्ष की पूजा करते हैं। लेकिन इसके गीतों, अनुष्ठानों और सामुदायिक जमावड़ों के पीछे ऐसा संदेश छुपा है जो आज के जलवायु संकट से गहराई से जुड़ता है।
21वीं सदी में जलवायु परिवर्तन मानवता के सामने सबसे जटिल चुनौतियों में से एक बनकर उभरा है। यह केवल वैज्ञानिक विषय नहीं रह गया, बल्कि आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक और नैतिक संकट है। भारत जैसे देशों में, जहाँ लगभग 60% आबादी सीधा कृषि और प्राकृतिक संसाधनों पर निर्भर है, ऐसे में जलवायु असंतुलन जीवन और आजीविका की बुनियाद को प्रभावित करता है। सवाल यह है कि क्या आधुनिक तकनीक अकेले समाधान दे सकती है, या हमें पारंपरिक ज्ञान और सामुदायिक चेतना को भी पुनर्जीवित करना होगा। इस संदर्भ में करम पर्व केवल एक त्योहार नहीं, बल्कि स्थायित्व की नई सोच का ढाँचा प्रस्तुत करता है और खुद को आधुनिक बहसों से जुड़ता है —
नीति का विकल्प बनकर नहीं, बल्कि पृथ्वी से रिश्ते को समझने के लिए एक सांस्कृतिक साधन के रूप में।
पर्व और उसके अनुष्ठान
करम पर्व झारखंड, बिहार, ओडिशा, छत्तीसगढ़ और पश्चिम बंगाल के विभिन्न आदिवासी समुदायों द्वारा मनाया जाता है। इसकी मुख्य पहचान है करम वृक्ष (नऊवा वृक्ष) की पूजा, जिसे उर्वरता, स्थायित्व और समृद्धि का प्रतीक माना जाता है। इस अनुष्ठान में महिलाएँ और बच्चे प्रमुख भूमिका निभाते हैं। वे पहले से धान, मक्का और ज्वार के बीज अंकुरित करते हैं और उन्हें पर्व तक पोषित करते हैं। बाद में इन अंकुरित पौधों को पूजा में अर्पित किया जाता है—यह खाद्य सुरक्षा और बीज संरक्षण का प्रतीक है।
गाँव सामूहिक ऊर्जा से जीवंत हो उठता है। अखड़ा—सामुदायिक चौपाल—में युवा और बुजुर्ग, पुरुष और महिलाएँ सब इकट्ठा होकर पारंपरिक गीत और नृत्य प्रस्तुत करते हैं। गीतों के बोल अक्सर पारिस्थितिक चेतावनी देते हैं:
— जंगल, नदियों और मिट्टी का अपमान संकट लाता है, जबकि सम्मान समृद्धि सुनिश्चित करता है। लोककथाएँ और कहानियाँ बुजुर्गों से बच्चों तक पहुँचती हैं, जो यह याद दिलाती हैं कि जीवन का आधार प्रकृति के साथ सामंजस्य है। विद्वानों ने इसे आदिवासी समाज का “जलवायु संविधान” कहा है, एक जीवंत संहिता जो संस्कृति, पारिस्थितिकी और नैतिकता को जोड़ती है।
स्थायित्व का सांस्कृतिक मॉडल
जलवायु नीति के दृष्टिकोण से देखें तो करम पर्व की परंपराएँ वैश्विक सतत विकास लक्ष्यों से गहराई से मेल खाती हैं। बीज संरक्षण, फसल विविधता, जल स्रोतों की रक्षा और वृक्षारोपण—ये सभी इस पर्व की मौन शिक्षा हैं। यह पर्व साझा जिम्मेदारी पर भी बल देता है:
पूरा गाँव मिलकर भूमि, जल और वनों की रक्षा करता है—यह शीर्ष-से-नीचे वाली नीति प्रक्रियाओं का विकल्प प्रस्तुत करता है। वैश्विक संस्थाएँ जहाँ जलवायु शासन पर सहमति बनाने में संघर्ष कर रही हैं, तब यह सामुदायिक आचार-नीति अद्भुत सादगी प्रस्तुत करती है।
करम पर्व की कई परंपराएँ आधुनिक स्थायित्व की बहसों से मेल खाती हैं:
- सामुदायिक भागीदारी:
ग्रामीण मिलकर वृक्षारोपण करते हैं, बीजों को संरक्षित करते हैं और जलस्रोतों की सफाई करते हैं। इससे संसाधनों पर साझा स्वामित्व की भावना विकसित होती है—जो आधुनिक पर्यावरण नीतियों में अक्सर कमी रहती है।
- महिलाओं का नेतृत्व:
महिलाएँ बीज अंकुरित करती हैं, अनुष्ठान तैयार करती हैं और बच्चों को कहानियाँ सुनाती हैं। यह भूमिका महिलाओ के प्रकृति की संरक्षक ,स्थायित्व और संस्कृतिक का वाहक विचारो को दर्शाती हैं।
- पीढ़ी-दर-पीढ़ी ज्ञान का आदान-प्रदान:
यह पर्व जीवंत पाठशाला है, जहाँ बच्चे जैव विविधता, कृषि और पारिस्थितिक नैतिकता को पाठ्यपुस्तकों से नहीं, बल्कि सहभागिता से सीखते हैं।
- नैतिकता और अर्थव्यवस्था का सम्मिश्रण: समकालीन जलवायु विमर्श में अक्सर पर्यावरण को संस्कृति से अलग कर दिया जाता है। करम पर्व इसके विपरीत नैतिकता, अध्यात्म और आजीविका को एक समग्र दृष्टिकोण में जोड़ता है।
करम पर्व को तैयारशुदा जलवायु संविधान बताना जोखिम भरा हो सकता है। प्रतीक प्रेरक होते हैं, लेकिन वे नीति या संरचनात्मक हस्तक्षेप की जगह नहीं ले सकते। खनन, औद्योगिकीकरण, वनों की कटाई और विस्थापन ने झारखंड और आसपास के आदिवासी इलाकों को बुरी तरह प्रभावित किया है। समुदाय उजड़े हैं, जंगल उजड़ गए हैं और नदियाँ प्रदूषित हो गई हैं। ये तबाही सदियों से करम पर्व मनाए जाने के बावजूद हुई है। यदि पर्व अपने आप पर्याप्त रक्षा कर पाता, तो संकट इतना गहरा न होता। करम पर्व जैसे अनुष्ठान जागरूकता तो पैदा करते हैं, लेकिन स्वयं समाधान लागू नहीं कर सकते। करम पर्व का रोमानीकरण न किया जाए। इसे “जलवायु संविधान”
कहना अतिशयोक्ति हो सकता है। यह निश्चित रूप से नैतिक मार्गदर्शन है, लेकिन यह बुलडोज़र नहीं रोक सकता, कार्बन उत्सर्जन नियंत्रित नहीं कर सकता, या विस्थापित परिवारों को रोजगार नहीं दिला सकता। इसी तरह, करम पर्व को भारत के नेट-ज़ीरो लक्ष्य (2070) या वैश्विक जलवायु रिपोर्टों से जोड़ना प्रतीकात्मक तो हो सकता है, पर व्यावहारिक नहीं। किसी दूरदराज़ गाँव का अनुष्ठान अपने आप अंतर्राष्ट्रीय वार्ताओं या नवीकरणीय ऊर्जा निवेश को नहीं बदल सकता।
परंपरा और नीति को जोड़ना
इसका यह अर्थ नहीं कि करम पर्व अप्रासंगिक हो गया है। उलटे, यह दिखाता है कि सांस्कृतिक परंपराएँ पारिस्थितिक मूल्यों को पोषित कर सकती हैं और सामूहिक जिम्मेदारी को प्रेरित कर सकती हैं। कमी यह है कि परंपरा और आधुनिक संकट के बीच पुल नहीं बन पाया है। करम पर्व को तैयार नीति खाके के रूप में नहीं, बल्कि वैज्ञानिक और नीतिगत उपायों के पूरक नैतिक ढाँचे के रूप में देखना चाहिए।
उदाहरण के लिए, आदिवासी पारिस्थितिक ज्ञान को स्कूलों के पाठ्यक्रम में शामिल करना, पंचायतों और महिला समूहों को वृक्षारोपण और जल संरक्षण की जिम्मेदारी देना, और वन अधिकार कानूनों को सख्ती से लागू करना, इन मूल्यों को संस्थागत रूप दे सकता है। ऐसे कदम अनुष्ठान को हकीकत से जोड़ेंगे और प्रतीक को रणनीति में बदलेंगे।
बड़ा संकटजलवायु कार्रवाई की तात्कालिकता को नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता। विश्व मौसम विज्ञान संगठन के अनुसार, 2023 में वैश्विक तापमान पूर्व-औद्योगिक स्तर से 1.45°C अधिक रहा। भारत को अकेले जलवायु आपदाओं से 141 अरब डॉलर का आर्थिक नुकसान हुआ। लगभग 60 करोड़ भारतीय गंभीर जल संकट झेल रहे हैं, और तटीय आबादी बढ़ते समुद्र स्तर और चक्रवातों का सामना कर रही है। इस कठोर सच्चाई में, करम पर्व जैसे सामुदायिक परंपराएँ सीधे समाधान तो नहीं देतीं, लेकिन वे सांस्कृतिक आधार और नैतिक स्मरण दिलाती हैं कि जीवन प्रकृति पर निर्भर है।
एक सूक्ष्म सबक
करम पर्व का सबक प्रेरक भी है और चेतावनी भरा भी। यह याद दिलाता है कि पारिस्थितिक संतुलन संस्कृति, गीत और सामुदायिक अनुष्ठानों में निहित है। लेकिन यह भी स्वीकार करना होगा कि केवल परंपरा समुदायों को खनन, औद्योगीकरण और वैश्विक ऊष्मीकरण से नहीं बचा सकती। वास्तविक जलवायु न्याय के लिए आवश्यक है कि करम की नैतिक बुद्धि मजबूत कानूनों, सशक्त स्थानीय शासन और वैज्ञानिक नवाचार से मिले।
भारत जब अपने जलवायु लक्ष्यों की ओर बढ़ रहा है, तब करम पर्व जैसी परंपराएं उसे नैतिक आधार देती हैं। ज़रूरत इस बात की है कि ये मूल्य अखाड़े से निकलकर नीति और जीवन में उतरें। तभी अनुष्ठान और वास्तविकता का संगम संभव होगा।
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