“ जय भीम ” फिल्म रिव्यू




वर्चस्व की व्यवस्था के आगे झुकने से इनकार करते हुए शोषण के विरुद्ध संर्घष करती आदिवासी महिला कि कहानी है " जय भीम " 

जय भीम यह एक ऐसी फिल्म है जो भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में पूरे व्यवस्था ( प्रशासनिक व्यवस्था , न्यायिक व्यवस्था, सामाजिक व्यवस्था ,इत्यादि ) पर सवाल खड़ी करता है। यह फिल्म पुलिस की बर्बरता  और हिरासत में यातना की चरम सीमा को दर्शाता है। यह फिल्म यह भी दिखाती है कि अगर आप गरीब है तो न्याय से सौदा करना पड़ेगा क्योंकि गरीबों को न्यायलय कि ओर देखना भी गुनाह हैं। यह फिल्म जातिगत भेदभाव, सामजिक भेदभाव ,धार्मिक भेदभाव को उजागर करती है जो इस देश में सदियों से चली आ रही है और आज भी हमारे सामाज में देखने को मिलता है। इस फिल्म में यह दिखाने का प्रयास किया गया है कि भारत को 1947 में राजनैतिक आजादी तो मिली, लेकिन सामाजिक भेदभाव,आर्थिक भेदभाव ,धार्मिक भेदभाव से आजादी नहीं मिली थी जिसे लेना अभी बाकी है।

इस फिल्म के निर्देशक टी जे ज्ञानवेल हैं। वे अपने दर्शकों को बताते हैं कि यह फिल्म जो आप देखने जा रहे हैं, वह उनकी कल्पना कि उड़ान नहीं हैं । ब्लकि इस फिल्म कि घटनाएँ वास्तव में लोगों के एक समूह के साथ हूई हैं। इस फिल्म में सूर्या, प्रकाश राज जैसे बड़े किरदार भले ही हैं लेकिन इस फिल्म में वो दोनों स्टार नहीं हैं, फिल्म कि असली स्टार लिजोमाल जोसे हैं, जिसने फिल्म में गरीब आदिवासी महिला सेंगनी का किरदार निभाया है यानि राजकानू की पत्नी का किरदार निभाया है और के.मणिकंदन ने राजकानू का  रोल किया है। फिल्म में इनके अलावे ओर भी कई किरदार है जिनकी भुमिका भी अहम है। लेकिन फिल्म की कहानी आदिवासी महिला सेंगनी के ईद-गिद घुमती है इसलिए इस फिल्म कि स्टार लिजोमाल जोसे हैं जिसने आदिवासी महिला की बेहतरीन अभिनय किया है।

इस फिल्म में दिखाया गया कि एक आदिवासी महिला है जिसे देश कि सरकार ने मूल सुविधा तक नहीं दिया हैं लेकिन सत्ता के भुखे भेड़िए उससे उसका अस्तित्व तक छिनना चाह रही है। वो महिला वर्चस्व की व्यवस्था के आगे झुकने से इनकार करते हुए शोषण के विरुद्ध संर्घष कर रही है। फिल्म में दिखाया गया कि सेंगनी अपने पति की जेल में ट्रार्चर के कारण मौत हो जाने से अकेले न्याय के लिए लड़ती है, जिसमे एक्टिविस वकिल चंद्रू (सूर्या) उसे न्याय दिलाने में मदद करता है।

फिल्म कि शुरूवात में दिखाया गया है कि एक पुलिस अधिकारी संदिग्धों को उनकी जाति के आधार पर अलग करता है। वह पुछता है नी अंत आलु (आप कौन से लोग हैं)। यदि वो खुद को किसी  निचली जाति (दलित या आदिवासी) का बताता है तो उन्हें एक अलग समूह में खड़ा कर दिया जाता है। इसके विपरीत्त उच्ची जाति के लोगों को खुली छूट दी जाती  है। दलितों और आदिवासियों पर झूठे आरोप लगाकर उन्हें प्रताड़ित किया जाता है। फिल्म का यह दृश्य दिखाता है कि सरकारी तंत्र किस तरह से जाति के नाम पर संस्थागत भेदभाव करती है। कानून के ऱखवाले या पुलिस व्यवस्था द्वारा जातिगत भेदभाव करना लोकतंत्र को कमजोर करना है, क्योकि यहाँ पर एक सरकारी व्यवस्था भेदभाव कर रही है। अगर कोई आम आदमी भेदभाव करता है या किसी तरह के गुनाह करता है तो उसके खिलाफ सबसे पहले लोग पुलिस के पास जाते है लेकिन यहां पर पुलिस ही भेदभाव कर रही है। समाज में हो रहे गलत कामो को रोकने के लिए पुलिस व्यवस्था बनाई गई है। हमारे देश का  संविधान लोगों कों भेदभाव करने से रोकता है जिसकी निगरानी पुलिस प्रशासन द्वारा की जाती है। लेकिन इस फिल्म में देखा जा  सकता हैं कि कैसे पुलिस व्यवस्था द्वारा भेदभाव किया जा रहा है।

 फिल्म में राजकानू को सांप पकड़ने और सांप द्वारा काटे जाने पर उसका इलाज करने वाले वैद्ध के रुप में दिखाया गया है। एक दृश्य में दिखाया गया है कि  उच्ची जाति के घर में सांप घुस जाता है । राजकानू उस को सांप पकड़ने के लिए बुलाने को कहा जाता है। एक उच्ची जाति का  व्यक्ति मोटर साईकल से  राजकानू के पास आता है , और उसे साथ चलने को कहा जाता है। जब राजकानू मोटर साईकल  मे बैठता है तो राजकानू  गलती से अपना हाथ उस व्यक्ति के कंधे पर रख देता है। उच्ची जाति वाला व्यक्ति उसे गुस्सेल नजरों से  देखता है जिससे बाद में राजकानू को  एहसास होता है कि उसने अपना हाथ उसके कंधे पर रख दिया था। यह दृश्य यह दर्शाता है कि एक व्यक्ति को दूसरे व्यक्ति की मदद कि जरुरत है लेकिन जातिवाद के कारण उसे हेय दृष्टि से देखा जाता है। उसे तुच्छ समझा जाता है। एक ओर राजकानू मानवता को देखते हुए उसकी मदद करता है तो दूसरी ओर, उसे तृष्कार मिलता है।

 इस फिल्म का एक दृश्य है जहां एक उच्ची जाति समूह के सदस्य को यह कहते सुना जा सकता है कि आपको क्या लगता है कि हमें आपके घर में आग लगाने में कितना समय लगेगा। इस दृश्य से यह बताने कि कोशिश किया जा रहा हैं कि किस प्रकार से समांतवादी विचारधारा हमारे समाज में आज भी फल-फूल रही है।

 फिल्म में एक महिला शिक्षक को दिखाया गया हैं। महिला शिक्षक सेंगनी के गांव के लोगों को पढ़ाने का काम करती है। इसमें दिखाया गया हैं कि गांव के लोगों के पास उनके पहचान-पत्र नहीं होते  है जब लोग पहचान-पत्र बनाने के लिए शिक्षिका के साथ सरकारी दफ्तर जाते है तो सरकारी अधिकारी सिधे तौर पर उनके पहचान-पत्र बनाने से मना कर देता है। जो यह दर्शाता है कि  आजादी के 75 वर्ष बाद भी आप भारत के निवासी नहीं है। चाहे आप यहां के मूल निवासी ही क्यों नहीं है।

हालांकि इस फिल्म  में यह भी दिखाया गया है कि यदि पुलिस प्रशासन आपको बेवजह बिना किसी अरेस्ट वारेंट के गिरफ्तार कर ले तो भारतीय संविधान के मौलिक अधिकार अनुच्छेद 32 में दिये हेब्यस कॅरप्स का उपयोग कर अपनी मौलिक अधिकार की रक्षा कर सकते है। इस फिल्म में सेंगनी अपने पति को खोज कर थक हार जाती है तो चंद्रू सेंगनी कि मदद करने के लिए अदालत में अनुच्छेद 32 में दिये हेब्यस कॅरप्स का प्रयोग करते है , जिसके बाद परत दर परत सच्चाई सामने आते जाती है।

 इस देश में पुलिस की बर्बरता के बारे में सरकार और जनता दोनों को अच्छी तरह से जानते हैं। इसके कई उदाहरण देश में देखने को मिल जाऐगें। पुलिस व्यवस्था को बेहतर बनाने के लिए नीति आयोग के एक्सन प्लान में मोरल पुलिसींग (पुलिस नैतिकता ) कि चर्चा की गई है। सरकार भी मानती हैं कि पुलिस व्यवस्था में कमी हैँ। इसमें सुधार करने कि आवश्यकता हैं।

इस तरह के सोसल मुद्दों पर बहुत सी  फिल्में  बनी है । इस फिल्म में बेबाकी से जाति समूहो के नामों को स्पष्ट रुप से उल्लेख किया गया है। यह फिल्म भीष्म हिंसा को दिखाता है। मेरे विचार से फिल्म का टाईटल जय भीम इसलिए रखा गया है क्योंकि इस फिल्म में भारतीय संविधान के मौलिक अधिकार अनुच्छेद 32 का उपयोग कर लोगों कि मौलिक अधिकार को रक्षा करते दिखाया गया है। दूसरा कारण यह भी रहा होगा कि  भारतीय समाज में दलित और आदिवासियों पर होते अन्याय और शोषण के विरोध में खड़ा होता दलित आंदोलन जो यह बताता है कि समाज में अन्याय और शोषण अम्बेडकर के द्वारा बनाये  संविधान और विचारो से ही खत्म किये जा सकते है।