जलवायु परिवर्तन में ग्रीनहाउस गैस की भागीदारी
नासा के एक अध्ययन में पाया गया है कि हमारी पृथ्वी अल्प अवधि के लिए ठंड़ होती है और दिर्घकालीन अवधि में गर्म होती रहती है, अर्थात पृथ्वी का अभी वार्मिंग चरण चल रहा है। मानव द्वारा संसाधनो का अनियमित दोहन के कारण पृथ्वी की गर्म होने की रफ्तार को बढ़ा दिया गया है । जिसके कारण पर्यावरण का संतुलन बिगड़ गया है। नोआ (National Oceanic and Atmospheric Administration -NOAA) में छपी लेख के अनुसार पिछले 60 वर्षों में वायुमंडलीय कार्बन डाइऑक्साइड में वृद्धि की वार्षिक दर पिछले प्राकृतिक वृद्धि की तुलना में लगभग 100 गुना तेज है, जैसा कि 11,000-17,000 साल पहले पिछले हिमयुग के अंत में हुआ था। ग्लोबल वार्मिंग की समस्या ने दुनिया के सभी वैज्ञानिको, राजनेतओ और पर्यावरणविदों को सोचने पर मजबूर कर दिया है। आज पूरे पृथ्वी पर ग्लोबल वार्मिंग का प्रभाव देखने को मिल रहा है। जिसके कारण वायुमंडल मे कई बदलाओ देखने को मिल रहा है ,जलवायु परिवर्तन के कारण भौगोलिक संरचना भी बदलाव आ रही है । हमारे वायुमंडल में ग्रीनहाउस गैस (कार्बन डाइऑक्साइड, मीथेन, नाइट्रस ऑक्साइड और ओजोन इत्यादि) का केवल एक छोटा प्रतिशत हैं। ये ग्रीनहाउस गैस पृथ्वी में गर्मी और ठंड़ का संतुलन बनाये रखने में बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। ग्रीनहाउस गैसों की मात्रा में वृद्धि के कारण वायुमंडल के तपमान में वृद्धि होती है और हमारा ग्रह एक दुष्चक्र में फंसकर ओर गर्म हो जाता है। पृथ्वी का तापमान बढ़ने के कारण ग्रीनलैंड और ध्रुवी इलाकों में जमी बर्फ पिघल रही है। बर्फ के पिघलने से समुद्र का जल-स्तर बढ़ रहा है । इटली जैसे तटवर्तीय देशों मे समुद्री जलस्तर बढ़ने का प्रभाव साफ देखा जा सकता है। नासा के अध्ययन के अनुसार अगले कुछ वर्षों मे दुनिया के हर तटीय इलका 2-4 फीट जलस्तर बढ़ने के कारण डूब जायेगा।
पृथ्वी पर तापमान का संतुलन बनाये रखने के लिए जरुरी
है : समुद्री बर्फ
और ध्रुवी बर्फ
पृथ्वी की अन्य सतहों की तुलना में समुद्री बर्फ में सबसे अधिक प्रकाशानुपात (Albedo / ऐल्बीडो ) या धवलता कि घटना होती हैं (पृथ्वी पर पड़ने वाले सौर विकिरण या अन्य विद्युतचुंबकीय विकिरण (इलेक्ट्रोमैग्नेटिक रेडिएशन) को प्रतिबिंबित करने की घटना प्रकाशानुपात (Albedo / ऐल्बीडो ) या धवलता कहलाती हैं)। नेशनल स्नो एंड आईस डाटा सेंटर(National Snow and Ice Data Center - NSIDC) के शोध के अनुसार खुली समुद्र आने वाले सौर विकिरण का केवल 6 प्रतिशत परावर्तित करता है और शेष को अवशोषित कर लेती है, जबकि समुद्री बर्फ आने वाली ऊर्जा का 50 से 70 प्रतिशत परावर्तित करता है। समुद्री बर्फ बहुत कम मात्रा में सौर ऊर्जा को अवशोषित करती है और सतह को ठंडा बनाये रखती है। कम तापमान गर्मियों में बर्फ के पिघलने की दर को धीरे करती है। लेकिन पिछले दो दशक से ग्लोबल वार्मिंग के कारण धुव्री क्षेत्रों से बर्फ पिघलने लगी है , बर्फ कम होने की वजह से ऐल्बीडो भी कम हो रही है। नतीजा यह हो रहा कि समुद्री जलस्तर बढ़ रहा है और तटवर्तीय क्षेत्र डूब रहे है।
PC:- NASA
जलवायु परिवर्तन को रोक ना पाई : पेरिस समझौता
2015 के पेरिस समझौते में वैश्विक तापमान वृद्धि को पूर्व-औद्योगिक स्तरों से 2.0 डिग्री सेल्सियस से नीचे रखने और तापमान वृद्धि को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित करने पर सहमति बनी थी । वर्ष 2021 में, आईपीसीसी (Intergovernmental Panel On Climate Change-IPCC) की छपी रिपोर्ट में चेतावनी दी है कि हम पेरिस समझौते के औसत वैश्विक तापमान वृद्धि 1.5 डिग्री सेल्सियस के लक्ष्य को तोड़ने के करीब हैं। रिपोर्ट मे कहा कि अगर हमनें प्रदूषण पर रोक नहीं लगाया तो बढ़ते तापमान और अनियंत्रित मौसमों का सामना करना पड़ेगा। जलवायु परिवर्तन के बुरे परिणामों को कम करने के लिए, हमें जल्द से जल्द नेट जीरो (नेट जीरो का अर्थ है वातावरण में डाली जाने वाली ग्रीनहाउस गैसों और बाहर निकलने वाली गैसों के बीच संतुलन हासिल करना है) के लक्ष्य को बनाये रखना होगा।
COP26
के अध्यक्ष आलोक शर्मा ने अंतरराष्ट्रीय समुदायो से कहा है कि 1.5 डिग्री सेल्सियस तापमान वृद्धि को
बनाये रखने के लिए ग्रीनहाउस गैस के उत्सर्जन में कमी लाना होगा तभी हम पेरिस
समझौते के लक्ष्य को पा सकते है। जलवायु परिवर्तन के संर्दभ में नाथन कूपर (लीड, पार्टनरशिप और एंगेजमेंट स्ट्रैटेजी, क्लाइमेट एक्शन प्लेटफॉर्म, वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम ) ने कहा है कि हमने COVID-19 महामारी से सीखा है कि रोकथाम बेहतर है, और इलाज से कहीं कम खर्चीला है। पेरिस
समझौते के लक्ष्य को प्रप्त करने के लिए मिलकर काम करने की जरुरत है, तभी हम
पृथ्वी को बचा सकते है।
जंगल में आग के लिए सबसे ज्यादा जिम्मेदार है : मानव
वायुमंडल में कार्बन की मात्रा बढ़ने का मुख्य वजह जंगल में आग लगना है। वर्ल्ड वाइड फंड फॉर नेचर (WWF) के एक अध्ययन के मुताबिक प्रत्येक साल वन में आग लगने से 15-20% कार्बन का उत्सर्जन
होता है। अध्ययन के मुताबिक विश्व मे 4 प्रतिशत आग प्राकृतिक कारण से लगते है जबकि
शेष 96 प्रतिशत वनों मे आग के लिए प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से, जानबूझकर या लापरवाही के कारण के लिए मानव
जिम्मेदार होते है।
वर्ष 2014 में, जर्मनी के जंगलों मे आग लगने से जर्मनी के ब्रैंडेनबर्ग का संघीय राज्य विशेष रूप से प्रभावित हुआ था जिससे जर्मनी को तकरीबन 1.9 मिलियन का आर्थिक नुकसान हुआ था। ऑस्ट्रेलिया के अधिकांश हिस्सों में प्राकृतिक घटनाओं के कारण जंगल और झाड़ियों में आग लगती हैं, वर्ष 2016 में पश्चिमी तस्मानिया के वर्षावन मे व्यापक आग लगने से पारिस्थितिक तंत्र खतरे मे आ गई थी। सामान्य परिस्थितियों में, आर्द्र जलवायु में आग बड़ी मुश्किल से फैलती है,लेकिन इस घटना ने दुनिया के सभी वैज्ञानिको, राजनेतओ और पर्यावरणविदों को बढ़ते जलवायु परिवर्तन के विषय में सोचने पर मजबूर कर दिया था, क्योंकि अबतक वनों में आग सिर्फ दक्षिणी ऑस्ट्रेलिया के गर्म और शुष्क क्षेत्रों पर ही लगती थी। भारत में सबसे ज्यादा आग वर्ष 2009-10 में (पूर्ववर्ती) आंध्र प्रदेश, असम, छत्तीसगढ़, झारखंड, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, मणिपुर, ओडिशा, उत्तराखंड, त्रिपुरा और मिजोरम में लगी थी। यह आग मानसून की विफलता और सूखे के कारण लगी थी।
वनों में आग लगने से वायुमंड़ल मे ग्रीनहाउस गैसों की मात्रा मे वृद्धि होती हैं, जो जलवायु परिवर्तन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। गर्म जलवायु वनों को शुष्क और गर्म बनाती है जिसमें तेजी से आग लगने की संभावना होती है। विभिन्न अध्ययन मानती हैं कि जलवायु परिवर्तन उच्च आग कि जोखिम को बढ़ाती है साथ ही मौसम को गर्म और शुष्क बनाती है।
जलवायु परिवर्तन का दुष्प्रभाव -
पृथ्वी के बढ़ते तापमान का असर वन्यजीवों और उनके आवासों पर पड़ रहा है। लुप्त होती बर्फ अंटार्कटिका में एडिली पेंगुइन जैसी पंछियों के प्रजातियों के लिए खतरा बन रही है, जैसे-जैसे तापमान बदलता है, पारिस्थितिक तंत्र मे कई तरह के बदलाव देखने को मिलते है। कुछ तितलियाँ, लोमड़ियाँ और अल्पाइन पौधे उत्तर की ओर या उच्चतर, ठंडे क्षेत्रों में चले गए हैं। पृथ्वी का तापमान बढ़ने से वातवरण मे नमी की मात्रा भी बढ़ जाती है। नमीयुक्त हवा के कारण तेज बरिश,बादल का फटना, आकाशीय बिजली का चमकना इत्यादि घटना होती है जिसके कारण बेवजह बाढ़ , भु-स्खल जैसी आपदाएं मनाव के लिए मुसिबत बन जाती है। दूसरी ओर तपमान के बढ़ने से कुछ क्षेत्रों को अधिक गंभीर सूखे का सामना करना पड़ता है, जिससे जंगल में आग, फसल नष्ट होने और पीने के पानी की कमी का खतरा बढ़ जाता है।
विज्ञान कहता है कि जैसे-जैसे जलवायु गर्म होती है, वायुमंडल मे वाष्पीकरण और वाष्पोत्सर्जन की प्रक्रिया बढ़ जाती है। जिस क्षेत्र मे वाष्पीकरण ज्यादा होती है ,वहाँ बढ़ते तापमान के साथ-साथ पानी की उपलब्धता में कमी आने लगती हैं और उस क्षेत्र में पानी की मांग बढ़ जाती हैं। इस क्षेत्र में सामान्य से भी कम वर्षा होती है जिसे सूखा कहा जाता है। जब किसी क्षेत्र में लंबे समय तक सूखे कि स्थिति बनी रहती है तो वह क्षेत्र मरुस्थल में बदल जाती है। सूखे कि स्थिति मानव जीवन को कई तरह से प्रभावित करती जैसे कृषि संकट, जल संकट, पनबिजली की समस्या इत्यादि । यूनियन ऑफ कर्न्सड़ साईंटिस्ट(Union of Concerned Scientists ) और सेंटर फोर क्लाईमेंट एण्ड एर्नजी सल्यूशन (Center for Climate and Energy Solutions -C2ES) में छपी रिपोर्ट के अनुसार पिछले एक दशक में सूखे ने दक्षिणपूर्व, पश्चिम और मध्य-पश्चिम सहित अमेरिका के कई क्षेत्रों को प्रभावित किया है। वर्ष 2012 से 2016 तक कैलिफोर्निया सबसे सूखा प्रभावित क्षेत्र था । भारत में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, उड़ीसा के कई क्षेत्र सूखा से प्रभावित है। भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (आईआईटी), गांधीनगर के शोधकर्ताओं द्वारा किए गए नए अध्ययन ने भारत में वर्ष 1951 और 2016 के बीच सूखे के कारणों की जांच की। निष्कर्षों के आधार पर, शोधकर्ताओं ने भविष्य में अचानक सूखे की आवृत्ति में वृद्धि की भविष्यवाणी की। भारत में हाल के वर्षों में, 1986, 2001 और 2015 में अचानक सूखा पड़ा था जिसका व्यापक प्रभाव देश मे पड़ा था, जिससे फसल उत्पादन कॉफी प्रभावित हुई थी। हजारों कि संख्या मे किसानों ने आत्महत्या किया था। वर्ष 2020 के एक अध्ययन में पाया गया कि भारत में हर साल 10% -15% चावल और मक्के का फसल क्षेत्र में अचानक सूखा पड़ जाने प्रभावित होता हैं।
आज विश्व कि तमाम चीजें खासकर जीवित वस्तुए जैसे पेड़-पौधे ,जीव-जंतु सभी प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रुप से जलवायु परिवर्तन के शिकार हो रहे है। जलवायु परिवर्तन कि समस्या को नजरअंदाज नही किया जा सकता है। अगर आज हम जलवायु परिवर्तन के समस्या को नजरअंदाज कर देते है तो मानव का अस्तिव खतरे में पड़ जायेगा