संस्कृति हमारी पहचान

“धर्म “समाज मे अफिम की भाँति है। ये शब्द मेरे नही है काल माक्र्स के है।झारखंड के आदिवासियों मे यह अफिम ब्रिटिश काल मे  ही बँट चुका है और उसका परिणाम आज हमे सरना और ईसाई धर्म के लोगों के बीच मतभेद के रुप मे दिखाई दे रहा है। दो अलग धर्मों के बीच मतभेद भारतीय समाज मे आज से नही हो रहा है ये तो मुगल काल से चलता आ रहा है ।लोग अपने अपने धर्म को श्रेष्ठ बताने के लिए कई कहानियां भी रचे जा चुके है(आप खुद समझदार है कौन कौन सी कहानिया लिखी गई  उसे बताना जरूरी नही है) ।झारखंड मे आदिवासी दो धार्मिक समुह मे बँट गये है।एक वर्ग खुद को मुल धर्म सरना से जोडता है तो दुसरा वर्ग आधुनिक ईसाई धर्म से जोडता है।खैर भारत जैसे लोकतांत्रिक देश मे लोगों को धार्मिक आजादी दि गई है वो किसी भी धर्म को अपना सकते है।यहाँ तक तो ठीक है लेकिन दिक्कत तब होती है जब दो अलग धार्मिक विचार के लोग आपस मे भिड जाते है। ये वहीं लोग होते है जिन्हें धर्म के बारे मे कुछ पता नही होता है  और खुद को धर्म के ठेकेदार मानते है।दरसल बात यह है कि किसी भी समाज मे धर्म और संस्कृति दो अलग चीजे है।संस्कृति का एक बहुत छोटा सा हिस्सा है “धर्म”।मतलब 100% मे से 99% संस्कृति है तो 1% धर्म है और उसी 1%को लेकर हम आपस लडते रहते है।धर्म जहाँ सिर्फ पुजा करने का एक तरीका है तो रहन सहन,खान-पान,बोल-चाल,वेशभूषा हमारी संस्कृति है।हमे लोग दुनिया मे अपनी अलग संस्कृति से पहचाने जाते है ना कि धर्म से।झारखंड मे हमारे आदिवासी भाईयो मे मैंने देखा है वे सिर्फ अपने पुजा करने का तरीका को बदले है ना कि अपनी संस्कृति को बदले है जो कि एक बहुत अच्छी बात है।झारखंड के आदिवासियों मे संस्कृतिक पतन जैसी कोई बात नही मिलती है।हाँ अगर संस्कृतिक पतन जैसी कोई बात होती तो मै इसका खुलकर विरोध करता।

एक अच्छी संस्कृति से एक अच्छा समाज का निर्माण होता है ना कि एक धर्म से